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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६
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14:51, 26 जनवरी 2010
:वत्स, देखो तुम निहार-निहोर।
:हाँ, जिसे वे गहन-कण्टक-शूल,
:बन गये
गॄहवाटिका
गृहवाटिका
के फूल!
:और देखो उस अनुज की ओर,
:आह! वह लाक्ष्मण्य कैसा घोर!
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