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कभी विपिन में हमें व्यंजन का, पड़ता नहीं प्रयोजन है,
:निर्मल जल मधु कन्द, मूल, फल-आयोजनमय भोजन हैं।
मनःप्रसाद चाहिए केवल, क्या कुटीर फिर क्या प्रसादप्रासाद?
:भाभी का आह्लाद अतुल है, मँझली माँ का विपुल विषाद!
:अत्रि और अनुसूया की-सी होगी कहाँ पुण्य-गृहता!
मानो है यह भुवन भिन्न ही, कृतिमता का काम नहीं;
:प्रकॄति प्रकृति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं विकृति का नाम नहीं॥
स्वजनों की चिन्ता है हमको, होगा उन्हें हमारा सोच,
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