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:"हे नर, यह क्या पूछ रहे हो, अब तुम हाय! हृदय हरके?
अपना ही कुल-शील प्रेम में, पड़कर नहीं देखतीं हम,
:प्रेम-पात्र का क्या देखेंगी, प्रिय हैं जिसे लेखतीं हम?
रात बीतने पर है अब तो, मीठे बोल बोल दो तुम;
:प्रेमातिथि है खड़ा द्वार पर, हृदय-कपाट खोल दो तुम।"
 
"हा नारी! किस भ्रम में है तू, प्रेम नहीं यह तो है मोह;
:आत्मा का विश्वास नहीं यह, है तेरे मन का विद्रोह!
विष से भरी वासना है यह, सुधा-पूर्ण वह प्रीति नहीं;
:रीति नहीं, अनरीति और यह, अति अनीति है, नीति नहीं॥
 
आत्म-वंचना करती है तू, किस प्रतीति के धोखे से;
:झाँक न झंझा के झोंके में, झुककर खुले झरोखे से!
शान्ति नहीं देगी तुझको यह, मृगतृष्णा करती है क्रान्ति,
:सावधान हो मैं पर नर हूँ, छोड़ भावना की यह भ्रान्ति॥"
 
इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति-पटी का रंग।
:किरण-कण्टकों से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग।
कुछ कुछ अरुण, सुनहली कुछ कुछ, प्राची की अब भूषा थी,
:पंचवटी की कुटी खोलकर, खड़ी स्वयं क्या ऊषा थी!
 
अहा! अम्बरस्था ऊषा भी, इतनी शुचि सस्फूर्ति न थी,
:अवनी की ऊषा सजीव थी, अम्बर की-सी मूर्ति न थी।
वह मुख देख, पाण्डु-सा पड़कर, गया चन्द्र पश्चिम की ओर;
:लक्ष्मण के मुँह पर भी लज्जा, लेने लगी अपूर्व हिलोर॥
 
चौंक पड़ी प्रमदा भी सहसा, देख सामने सीता को,
:कुमुद्वती-सी दबी देख वह, उस पद्मिनी पुनीता को।
एक बार ऊषा की आभा, देखी उसने अम्बर में,
:एक बार सीता की शोभा, देखी बिगताडम्बर में।
 
एक बार अपने अंगो की, ओर दृष्टि उसने डाली,
:उलझ गई वह किन्तु,--बीच में, थी विभूषणों की जाली।
एक बार फिर वैदेही के, देखे अंग अदूषण वे,
:सनक्षत्र अरुणोदय ऐसे-रखते थे शुभ भूषण वे॥
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