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खोई हुई चीज़ / मंगलेश डबराल

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'''खोयी हुई चीज़'''

कुछ समय पहिले हमारे पास एक सुन्दर चीज़ थी. कोमल और पारदर्शी.<br />
उसी के कारण हमारे भीतर एक अवर्णनीय मिठास रहती थी. हमें<br />
अपना शरीर हवा के कई झोंकों से बना हुआ लगता था. कहीं पानी<br />
बहने की आवाज़ आती थी तो वह हमारे भीतर से आती सुनाई देती थी.<br />
किसी को छूने पर पहली बार छूने जैसा धीमा कंपन महसूस होता.

एक दिन वह हमसे कहीं खो गयी. कहना कठिन है कि यह कैसे हुआ.<br />
इसका पता तब चला जब हमारे भारी और सख़्त हो गये और<br />
स्पर्श की ज़गह सिर्फ़ एक चिपचिपाहट बची रही. अक्सर लगता है<br />
कि वह चीज़ यहीं कहीं है हालाँकि उसकी खोज में हम काफ़ी ख़ाक<br />
छान चुके हैं और अक्सर झल्लाते रहते हैं. खोयी हुई चीज़ों का अपना<br />
एक जीवन है जो मिठास से भरा हुआ है और वे आपस में इतना<br />
घुल-मिल कर रहती हैं कि यह पहचानना लगभग असंभव है कि वह<br />
चीज़ कहा है.

१९९२
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