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15:39, 28 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त<ref>जीवन</ref> की दुश्वारियाँ<ref>कठिनाइयाँ</ref> बढ़ती गईं।
पेशकदमी<ref>पहल</ref> वो करे मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।
आप भी तो खुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ<ref>कटुतायें </ref> बढ़ती गईं।
भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।
मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ<ref>छल, चालाकियाँ</ref> बढ़ती गईं।
आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।
अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।
</poem>
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