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16:08, 28 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’
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<poem>
उम्र भर का ये कारोबार रहा।
इक इशारे का इन्तेजार रहा।
जान आख़िर को किस तरह बचती
जो था क़ातिल वही क़रार रहा।
उसने वादा नहीं किया फिर भी
उसकी सूरत पे ऐतिबार रहा।
जितने सच बोलने पड़े मुझको
उतने झूँठों का कर्जदार रहा।
मुझको मौका नहीं मिला कोई
मैं यक़ीनन ईमानदार रहा।
जिसका ख़ंजर तुम्हारी पीठ में है
अब तलक वो तुम्हारा यार रहा।
फ़ैसला क़त्ल का दो टूक हुआ
ख़ुद ही मक़्तूल जिम्मेदार रहा।
सोच लेना गु़रूर से पहले
वक़्त पर किसका इख़्तियार रहा।
जब्त से काम लिया फिर भी ’अमित’
चेहरा कमबख़्त इश्तेहार रहा।
</poem>