1,340 bytes added,
12:20, 30 जनवरी 2010 '''मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है'''
मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है.
बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है.
न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग<br />
रोज़ मरते हैं. लोगों की आँखों में झाँको<br />
तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की<br />
मांनिंद भीतर उतर जाता है. जहाँ बच्चों<br />
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.
अखवार पढ़ते हुए अचानक कविता<br />
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br />
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br />
शुरु होता है.
कविता प्रिया की तरह नहीं आती है.<br />
तग़ादा करने आये बनिया की तरह<br />
एहसास कराती है.
'''रचनाकाल''': 20/01/1996