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मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है / मुकेश जैन
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12:21, 30 जनवरी 2010
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.
अखवार
अखबार
पढ़ते हुए अचानक कविता<br />
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br />
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br />
एहसास कराती है.
'''रचनाकाल''': 20/
01
जनवरी
/1996
Achyut
21
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