{{KKRachna
|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली
|संग्रह=मौसम आते जाते हैं / निदा फ़ाज़ली;खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली
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<poem>
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |
पहले हर चीज़ थी अपनी मर्ज़ी से कहाँ मगर अब लगता हैअपने सफ़र के हम हैं<br>रुख हवाओं का जिधर का हैही घर में, उधर किसी दूसरे घर के हम हैं |<br><br>
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता वक़्त के साथ है<br>मिट्टी का सफ़र सदियों सेअपने ही घर मेंकिसको मालूम, कहाँ के हैं, किसी दूसरे घर किधर के हम हैं |<br><br>
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों जिस्म से<br>रूह तलक अपने कई आलम हैंकिसको मालूम, कहाँ कभी धरती के हैं, किधर कभी चाँद नगर के हम हैं |<br><br>
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम चलते रहते हैं<br>कि चलना है मुसाफ़िर का नसीबकभी धरती केसोचते रहते हैं, कभी चाँद नगर किस राहगुज़र के हम हैं |<br><br>
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब<br>सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |<br><br> गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम<br>हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |<br><br/poem>