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[[Category:लम्बी कविता]]
 
[[बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ५|<< पिछला भाग]]
 <poem>तिरती है समीर-सागर पर<br>अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-<br>जग के दग्ध हृदय पर<br>निर्दय विप्लव की प्लावित माया-<br>यह तेरी रण-तरी<br>भरी आकांक्षाओं से,<br>घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर<br>उर में पृथ्वी के, आशाओं से <br> नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,<br>ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!<br>फिर-फिर!<br>बार-बार गर्जन<br>वर्षण है मूसलधार,<br>हृदय थाम लेता संसार,<br>सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।<br>अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,<br>क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,<br>गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।<br>हँसते है छोटे पौधे लघुभार-<br>शस्य अपार,<br>हिल-हिल<br>खिल-खिल,<br>हाथ मिलाते,<br>तुझे बुलाते,<br>विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।<br>अट्टालिका नही है रे<br>आतंक-भवन,<br>सदा पंक पर ही होता<br>जल-विप्लव प्लावन,<br>क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से<br>सदा छलकता नीर,<br>रोग-शोक में भी हँसता है<br>शैशव का सुकुमार शरीर।<br>रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,<br>अंगना-अंग से लिपटे भी<br>आतंक-अंक पर काँप रहे हैं<br>धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!<br>त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।<br>जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर<br>तुझे बुलाता कृषक अधीर,<br>ऐ विप्लव के वीर!<br>चूस लिया है उसका सार,<br>हाड़ मात्र ही है आधार,<br>ऐ जीवन के पारावार! <br><br/poem>
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