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13:04, 4 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवीन्द्र प्रभात
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<poem>
भर दे जो रसधार दिल के घाव में !
फिर वही घूँघरू बंधे इस पाँव में !
द्रौपदी वेबस खडी यह कह रही -
अब न हो शकुनी सफल हर दाव में !
बर्तनों की बात मत अब पूछिए -
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में !
है सफल माझी वही मझदार का -
बूँद एक आने न दे जो नाव में !
बात करता है अमन की जो "प्रभात"
भावना उसकी जुडी अलगाव में !
<poem>