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{{KKRachna
|रचनाकार=रवीन्द्र प्रभात
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जो शीशे का मकान रखता है ,
वही पत्थर की ज़ुबान रखता है ।

गुम कर-करके परिन्दों के पर ,
बहोत ऊंची उडान रखता है ।

है जो तहज़ीव से नही वाकिफ ,
घर में गीता - कुरान रखता है ।

खोटा चलता उसका ही सिक्का ,
जो अमन की दुकान रखता है ।

अब तो बेटा भी बाप की खातिर ,
घर के बाहर दलान रखता है ।

कहता है खूबसूरत ग़ज़ल जानिब ,
छुपा करके दीवान रखता है ।

बहुत खराब है 'प्रभात' ये शराब ,
क्यों मौत का सामान रखता है ?
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