{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार== आवाज़ एक पुल है ==कुमार सुरेश}}{{KKCatKavita}}<poem>अनेक बार
चाहते हुए भी
मैं सहमत नहीं हो पता
मंतव्य अपने
समझा भी नहीं पता
एक शून्य फ़ैल फैल जाता है
बीच में
ठण्ड की वजह से
जो हमारे भीतर कहीं
गहराई में बस्ती बसती है आवाज़ तब बर्फ बर्फ़ हो जाती है
जब महकना चाहिए उसे
काफी कॉफ़ी की खुशबू ख़ुशबू की तरह
संवादहीनता के ठन्डे ठण्डे स्पर्श से अपनापन तिडकने तिड़कने लगता है कांच काँच की तरह
तब
उसकी विशिष्टता
मान लेने को
सहमत हो जाता हूँ. हूँ। </poem>