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12:12, 9 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=घनानंद
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<poem>
वैस की निकाई, सोई रितु सुखदायी, तामें -
::वरुनाई उलहत मदन मैमंत है ।
अंग-अंग रंग भरे दल-फल-फूल राजैं,
::सौरभ सरस मधुराई कौ न अंत है ॥
मोहन मधुप क्यों न लटू ह्वै सुभाय भटू,
::प्रीति कौ तिलक भाल धरै भागवंत है ।
सोभित सुजान ’घनाआनँद’ सुहाग सींच्यौ,
::तेरे तन-बन सदा बसत बसंत है ॥
</poem>