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05:38, 10 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बिर्ख खड़का डुबर्सेली
|संग्रह=
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<Poem>
भाई के गीले कपडे
बदला करती थी दीदी
दीदी के केश खींचकर
खेला करता था भाई
किलकारियां खिलती थीं
ठहाके बरसते थे
अब तो रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !
चलती ट्रेन अटक गयी
झाँक कर देखो खिड़की से दूर-दूर तक चुपचाप
निर्दोष खुले हैं घर के आँगन
निर्मोल पड़े हैं आँगन के घर !
प्रसूता की व्यथा-भरी चाह से
पुरखों के पसीने की आह से
सजा-संवरा यह
वारदात की बात नहीं कह पाता
रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !
राज अपना है
नीति भी अपनी है
हाथ अपने हैं
हथियार कहाँ से आये
नासमझ अबूझ सा
रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !
'''मूल नेपाली से अनुवाद: कवि द्वारा स्वयं'''
<Poem>