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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
जितना ही जानता जाता हूँ तुम्हें
उतना ही चढ़ता जाता है प्रेम
उतनी ही कठिन होती जाती
जिन्दगी की राह

चट्टानों को फोड़कर
एकांत में बहता
पानी का सोता
याद आता है

जितना ही जानता जाता हूं, तुम्हें
उतना ही जेय लगने लगता है समय
दुख उतना ही उर्वर
जीवन उतना ही अर्थमय
सुंदरता के कई अनकहे अर्थ
खुलने लगते हैं
और मन विस्मित रह जाता है

एक संकल्प आंखें खोलता है
यह राह कठिन
नई शक्ति दे जाती है पावों को !
</poem>
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