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::::इसने ही ईजाद किया था
:::::सबसे पहले ताला
 
सुखा दिया इसने सारा अपने मन का पानी
खरे दाम में बेचा करता अपनी बेईमानी
::::ताले में जो बन्द पड़ा है
:::::धन है सारा काला
 
रोटी देकर ख़ून चूसना इसका दया-धरम है
परदेशों को देश बेचने में भी नहीं शरम है
::::रहा सदा भारी पलड़े में
:::::ये सरकारी साला
 
कोर्ट-कचहरी अस्पताल या जितने भी दफ़्तर हैं
इसको सब गिरजा, गुरुद्वारे, मस्जिद हैं, मन्दिर हैं
::::जगह-जगह पर बैठे इसके
:::::ईश्वर अल्ला ताला
 
'''रचनाकाल''' : 24 अक्तूबर 1978
</poem>
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