गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील
No change in size
,
23:33, 15 फ़रवरी 2010
}}
<poem>
देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो
<br />
|
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो
||
लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे<br />
Sandeep Sethi
Delete, Mover, Uploader
894
edits