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11:13, 20 फ़रवरी 2010 एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा<br>
मैं ने जो संग तराशा वो ख़ुदा हो बैठा
उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो<br>
शौक़-ए-मंज़िल में मेरा आबलापा हो बैठा
मसलहत छिन गई क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार मगर <br>
कुछ न कहना ही मेरा मेरी सदा हो बैठा
शुक्रिया ए मेरे क़ातिल ए मसीहा मेरे <br>
ज़हर जो तुने दिया था वो दवा हो बैठा
जाने 'शहज़ाद' को मिनजुम्ला-ए-आदा पाकर <br>
हूक वो उट्ठी के जी तन से जुदा हो बैठा