1,496 bytes added,
07:11, 21 फ़रवरी 2010 [[समयातीत पूर्ण 5]]
<poem>हे अकम्पित
बरसते रहे प्राणघातक, मर्मान्तक
अस्त्र-शास्त्र चारों और
तुम रहे निष्कंप
सहज भाव से बैठे रहे
स्वयं की वल्गा थामे हुए
विवेक अक्षुण रहा तुम्हारा
तब भी जब भी
प्रियजन, सुहृद और सखा
गुरुजन, पुत्र और पिता
बिना मांगे विदा
निष्प्राण हो धरा पर
गिरते गए एक-एक कर
जब रणचंडी करती रही नृत्य
पूर्ण रक्तरंजित विभीषिका में
मर्मान्तक शाप दिया गांधारी ने
तुम सहज मुस्कुराते रहे
सहजता से स्वीकार किया
मर्मवेधी वचनों को
जैसे किया स्वीकार
राधा के प्रेम को
जय तथा पराजय को
प्रेम को और घृणा को
हे हृषिकेश
कहो तो जरा
तुमने अपना युद्ध कब लड़ा
कब जीत लिया था ?</poem>