|रचनाकार=नासिर काज़मी
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सफ़र-ए-मन्ज़िलमंज़िल-ए-शब याद नहीं
लोग रुख़्सत हुये कब याद नहीं
थी मुझे किस की तलब याद नहीं
वो सितारा थी के कि शबनम थी के कि फूल
इक सूरत थी अजब याद नहीं
ऐसा उलझा हूँ ग़म-ए-दुनिया में
एक भी ख़्वाब-ए-तरब <ref>खुशी के सपने</ref> याद नहीं
भूलते जाते हैं माज़ी के दयार
याद आयें आऐं भी तो सब याद नहीं
ये हक़ीक़त है के कि अहबाब को हमयाद ही कब थे के कि अब याद नहीं
याद है सैर-ए-चराग़ाँ "नासिर"
दी दिल के बुझने का सबब याद नहीं</poem>{{KKMeaning}}