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19:58, 23 फ़रवरी 2010 [[7. समयातीत पूर्ण ]]
<poem>हे आत्म-द्रष्टा !
हम यह शरीर मात्र हैं तो
हमारी निराशा बड़ी गहन
और पीड़ा वास्तविक है
न चाहते हुए भी शरीर
छीजता जाता है
आसन्न मृत्यु का
क्रूर तथा विकृत चेहरा
अनेक रूपों और प्रकारों में
बार-बार दिखाई देता है
औचक दिखाई दे जाता है हमारी सारी
योजनाओं और चिंताओं का मसखरापन
ऐसे में तीव्र आवश्यकता होती है नशे की
जो भुलाए रहे घिनौना सच
किन्तु नशा बीच-बीच में टूटता है
तकलीफ और बढ़ जाती है
तुमने भयभीत मनुष्य को
अभय दिया यह कहकर कि
न तो ऐसा है कि तुम किसी काल
में नहीं थे
न ऐसा है कि भविष्य में
हम सब नहीं होंगे
हम वही हैं जिसका विनाश नहीं है
हम वही चिरंतन हैं
जिसमें पूर्ण अभय है ?
मृत्यु से आत्यांतिक पीड़ित
मनुष्यों को मृत्यु से मुक्त करने ही
पृथ्वी पर प्रकट हुए थे क्या
हे अक्षय अमृत कुंड ! </poem>