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अब माँ नहीं है / शांति सुमन

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<poem>
तुम्हारे गाँव की बगल से
बहनेवाली नदी
ढाई कोस दूर से ही चली जाती है
आस-पास के गाँवों की ओर
किनारे पर छोड़कर
ढेर सारे पटेर और सरपत के
हरे-हरे हिलते पत्ते
किसी भी गाँव जाने वाले यात्री के
पाँव पखारती है वह नदी
बचपन में सोने के पहले
रोज पाँव धो देती थी माँ
कहती- बुरे सपने आते हैं
गंदे पाँव सोने से

अब माँ नहीं है
और नहीं है वह नदी भी
मटियारी मिट्टी है उसकी पेट में
उपजते हैं उसमें जौ-गैहूँ और सरसों
मगर तुम तो कहते थे
कभी सूखती नहीं थी वह नदी
जाने कहाँ से भर जाते थे उसमें अथाह जल
एक बार तुम्हारे पिता भी बाढ़ के दिनों में
उसके पार हुए माथे पर रखकर झोला और चप्पल
कितने अपने, किसान-स्वभाव से भरे
सादा और संतुष्ट
लगते थे तुम यह सब कहते हुए
पर वह क्या था, कैसी जिद
जो तुमको बहाकर ले जाती थी
हमसे दूर-बहुत दूर
भादो के आकाश में उड़नेवाले वलाका की तरह
लगने लगते थे तुम
जो सामने से उड़ते जाते हुए दूर तक
हो जाते हैं अनदिख
स्वप्न तो नहीं हो तुम
शामिल हुए ठोस विचार की तरह
हमारी दिनचर्या में
पर विचार भी कहाँ रहते हैं
एक जैसे सबदिन ।
</poem>


30 नवंबर, 2006
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