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[[तालाब के ठूंठ / संध्या पेडण॓कर]]
<poem>
दिल लगा कर जाना है
अकेले ही आखिर जीना है
अकेले आना है
अकेले जाना है
मेले है सब राह के
न सुख के
न दुःख के
न हास के न परिहास के
तालाब के हैं सब ठूंठ
झीनी लहर पर सरकते
पास आते और घिसटकर जाते
उफान नहीं तालाब में
पानी भरे लबालब
तो स्थिर रह कर गुजर जाने देते
ऊपर ही ऊपर
डूबते-उतराते
न मिलने की आस
न बिछुड़ने का दुःख
आदमी हैं यहाँ सब
तालाब के ठूंठ
</poem>
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