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नया पृष्ठ: [[स्त्रियश्चारित्रम / संध्या पेडण॓कर]] <poem> अस्सी वर्ष की दादी के चरि…
[[स्त्रियश्चारित्रम / संध्या पेडण॓कर]]
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अस्सी वर्ष की दादी के चरित्र पर
नब्बे वर्ष के दादा ने उंगली उठायी
और
दादी का चरित्र
सबकी शंकित नजरों पर
बलि चढ़ गया

दादी आज भी जीवित हैं
दादा उसके ही हाथ की रोटी तोड़ते हैं
लेकिन बेटे-बहु नाती-पोते दादी को अब
हिकारत की निगाह से देखते हैं
और
पास पड़ोसवालों ने उसे
खिताब बहाल किया है - कुलटा का!

झल्ला कर उसने कहा
इसी खिताब का तकिया लगा कर
मुझे चिता पर चढ़ा देना
हिसाब मेरा ऊपर ही होगा
मुआवजे के तौर पर
अगला जनम मेरा
स्त्री का नहीं होगा
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