फिर वे जल में गले, गये।"
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय
यह प्रालेय हलाहल नीर नीर।
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ
खोज खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार -बार उस भीषण रव से
कँपती धरती देख विशेष,
धसँती धरा, धधकती ज्वाला.,
ज्वाला-मुखियों के निस्वास
उदधि डुबाकर अखिल धरा को
बस मर्यादा-हीन हुआ हुआ।
तब प्राणी कौन कहाँ कब सुख पाते?
उस विराट आलोडनमें आलोडन में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लगते,
ज्योतिरिगणों-से जगते।
दीन पोत का मरण रहा।
अधम-पात्र मय सा विष्कंभ।"
वही सत्य है, अरी अमरते
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।|
क्षण भर रहा उजाला में।"
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण
बने भारवाही थे भृत्य भृत्य।