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हिम-संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीडा क्रीड़ा करता
जैसे मधुमय पिग पिंग पराग।
प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,
जलधि लहरियों की अँगडाई अँगड़ाई
बार-बार जाती सोने।
'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक
और कुतुहल कुतूहल का था राज़। राज़!
अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न
ये फिर भी कितने निबल रहे। रहे!
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण
किसका करते से-संधान। संधान!
यह कितनी स्पृहणीय बन गई
मधुर जागरण सी-छविमानछबिमान,
स्मिति की लहरों-सी उठती है
मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों
लगा गूँजने कानों में !
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'
शीतल झरनों की धारायें
बिखरातीं जीवन-अनुभूति। अनुभूति!
संध्या-घनमाला की सुंदर
ओढे ओढे़ रंग-बिरंगी छींट,
गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ
प्रतिनिधियों से भरी विभा,
इस अनंत प्रागण प्रांगण में मानो
जोड़ रही है मौन सभा।
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