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19:55, 21 मार्च 2010 [[एक बुलबुला]]
<poem>झील कि सतह पर उपजा और फूला
उसने देखा पानी कि विशाल चादर को
खुले नीले आसमान को
आसमान में उड़ते पक्षियों को
और सोचा
अहा! मैं इन सब से अलग हूँ!
मैं ज्यादा गोल-गोल और सुन्दर
ज्यादा ताज़ा ज्यादा युवा हूँ
पानी कि चादर अधिक ठंडी है
आकाश ज्यादा ही ऊपर है
और मछलियाँ सब बुद्धू हैं
दूसरे बुलबुलों को देखकर बोला
ये सब अजीब हैं.
सूरज कि गर्मी जब तेज़ हुई
बुलबुला सिकुड़ने लगा
सूरज से सिकुड़ने से बचाने कि प्रार्थना करने लगा
सूरज खामोश रहा और तपता रहा
बुलबुला यह सोचते हुए फूटा
कि उसके जैसा बुलबुला
कोई हुआ न होगा
इतनी देर में झील पर हजारों नए ताज़े बुलबुले
बन चुके थे
</poem>