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|रचनाकार=ग़ालिब|संग्रह= दीवाने-ग़ालिब / ग़ालिब}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
बज़्मे-शाहनशाह में अशआ़र का दफ़्तर खुला
रखियो या रब! यह दरे-ग़ञजीनएग़नजीना-ए-गौहर<ref>जवाहरात के कोष का दवारदरवाजा</ref> खुला
शब हुई फिर अनजुमे-रख़्शन्दा<ref>चमकते हुए तारे</ref> का मंज़र<ref>दृश्य</ref> खुला
गो<ref>चाहे</ref> न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वो परी-पैकर<ref>परी सा सी स्वरूपवाली</ref> खुला
है ख़याले-हुस्न <ref>सुंदरता की सोच</ref> में हुस्ने-अ़मल <ref>कर्म की सुंदरता</ref> का-सा ख़याल ख़ुल्द<ref>स्वर्ग</ref> का इक दर है मेरी गीरगोर<ref>कब्र</ref> के अंदर खुला
मुंह न खुलने पर वो आ़लम है कि देखा ही नहीं
उसकी उम्मत<ref>अनुयायी वर्ग,समुदाय</ref> में हूं मैं, मेरे रहें क्यों काम बंद
वास्ते जिस शह <ref>(यहाँ) हज़रत अली</ref> के ग़ालिब गुम्बदे-बे-दर<ref>आकाश</ref> खुला
</poem>
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