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[[Category:गज़ल]]
<poem>दिन सलीक़े से उगा, रात ठिकाने से रही <br>
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
 चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें <br>
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
 इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी <br>
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही
 फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को <br>
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
 शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत <br>
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
</poem>
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