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<poem>
अकेलेपन से बढ़कर
आनन्द नहीं , आराम नहीं ।
स्वर्ग है वह एकान्त,
जहाँ शोर नहीं, धूमधाम नहीं ।

देश और काल के प्रसार में,
शून्यता, अशब्दता अपार में
चाँद जब घूमता है, कौन सुख पाता है ?
भेद यह मेरी समझ में तब आता है,
होता हूँ जब मैं अपने भीतर के प्रांत में,
भीड़ से दूर किसी निभृत, एकान्त में ।

और तभी समझ यह पाता हूँ
पेड़ झूमता है किस मोद में
खड़ा हुआ एकाकी पर्वत की गोद में ।

बहता पवन मन्द-मन्द है ।
पत्तों के हिलने में छन्द है ।
कितना आनन्द है !

'''अंग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : रामधारी सिंह 'दिनकर''''
</poem>
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