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|रचनाकार=रवीन्द्र दास
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<poem>
इतना तो बताते जाते
कि पता ठिकाना तेरा मैं किससे पूछूँ ?
रास्तों से !
हवाओं से !
या फिर उन अनजाने चेहरों से
जो घूर रहे कौतूहल से
तेरे मुझको !
बीतते जा रहे हैं दिन-दर-दिन
लगता रहता हूँ मैं शर्त खुद से ही
कि जब 'ये' हो जाएगा तो आ जाओगे तुम।
और बीत गया अरसा
खुद से शर्तें हारते हुए भी
पर तुम न आए।
सच मानो,
ठहर गई है जिंदगी जैसे
तुम्हारे इंतजार के सिवा कुछ नहीं है मेरा जिम्मा
और नहीं माना जाता है काम
एक इंतजार अंतहीन
इतना कमजोर होता है इन्सान
नहीं जानता था मैं
कि बँट जाता है आप ही
बचा राखी सांसे, तुम्हारे इंतजार ने
हालाँकि हद होती है हर बात की........|</poem>