<h1><b>इंसान ही था वह</b> </h1>{{KKGlobal}}<br><pre>{{KKRachna|रचनाकार=अशोक तिवारी|संग्रह= }}{{KKCatKavita}}</prePoem><poem> '''सफ़दर हाश्मी के लिए'''
एक इंसान ही था वह
हमारे बीच
गुस्सा करते हुए
हर उस बात पर
जो हो आदमीयत के खिलाफखिलाफ़भाईचारे के खिलाफखिलाफ़
इंसान ही था वह
एक झील की तरह
बहता हुआ मगर
ऊंचे ऊँचे झरने और
उद्दाम वेग से बहने वाली
नदी की तरह
पहचानते हुए
समय की नव्ज़ नब्ज़़ को
भरते हुए मुठ्ठी में
ज़माने की तपिश
करके गया अभिव्यक्त
नुक्कड़-नुक्कड़
साफगोई साफ़गोई और बेबाकीपन से
खुलेपन से जो भरता था
अपनी मजबूत मज़बूत बाँहों में
हमख्याल और हर ज़रुरतमंद को
एक इंसान ही की तरह
हमारी ही तरह
हमारे आसपास
(सफ़दर हाश्मी के लिए)
</poem>