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यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की ! की।
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी ! सी।
यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित ! यहाँ खर्व नर (वानर ?) रहते युग युग से अभिशापित, अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित ! कल्पित।
यहाँ खर्व नर (बानर?) रहते युग युग से अभिशापित,
अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।
यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
यह भारत का ग्राम,-सभ्यता , संस्कृति से निर्वासित ! निर्वासित। झाड़ फूँस के विवर,--यही क्या जीवन शिल्पी के घर? कीड़ों-से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर? अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जग में, गृह- गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में!
झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर ? कीड़ों-से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?  अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जन में, गृह-गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में ? यह रवि शशि का लोक,--जहाँ हँसते समूह में उडुगण, जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन ! घन।
यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली !  ये रहते हैं यहाँ, --और नीला नभ, बोई धरती, सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती ! प्रकृति धाम यह: तृण तृण, कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित, यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवनन्मृत!
प्रकृति धाम यहरचनाकाल: तृण तृण कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित, यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत !!दिसंबर’ ३९
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