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उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर ,
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर ! सरकती -पट, खिसकाती -लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट !
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्ज्वल फेनो्ज्वल दशनों से अधरों के तट !
वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक ,
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट ! पट।
पनघट पर
मोहित नारी नर !--
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;--
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट !
कानों में गुड़हल
खोंस, --धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,--
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
आम्र मौर, सहजन, पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार।
आम्र मौर, सहजन पलाश से, निर्जन में सज ऋतु सिंगार ! तन पर यौवन सुषमाशाली ,
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती ,
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली ! बाली।
रे दो दिन का
उसका यौवन !
सपना छिन का
रहता न स्मरण !
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन ! ढह जाता असमय यौवन धन !
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस -खेला कुछ क्षण !! रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
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