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वे आँखें / सुमित्रानंदन पंत

No change in size, 13:37, 28 अप्रैल 2010
:लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल नें,
:डूब कुऍं कुँए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
:न सही एक, दूसरी आती,
:क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन
:तीखी नोख नोक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता
:रहती तब आँखों में उस क्षण!
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