{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पंत
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विदा बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर ,मेरे एकाकी मन आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकुल दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बरअंबर! मैं बरामदे में लेटा , शैय्या पर, पीडित पीड़ित अवयव,
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद, --मेघों से उमड घुमड उमड़ उमड़ कर भावी के बहुस्वप्नबहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
वर्ह भार बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को, ;
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल। प्रतिपल! कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गभीर गर्जन स्वर, भू पर आ ही गया आगया उतर शत धाराओं में अम्बरअंबर! भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर! नव असाढ असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल, पीडित पीड़ित एकाकी शैय्या शय्या पर, शत भावों से विह्व्लविह्वल, एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल उज्वल याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल! रचनाकाल: जुलाई’ ३९
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