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ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव }}{{KKCatKavita}}<Poem>अपनी धुरी के साथ-साथ<br />घूमती हमारी नींद में भी<br />अजस्‍ञ अजस्र सपनों से भरी ओ पृथ्‍वी<br />!मुझे दे आज यह वचन<br />कि मुझमें तू रहे शताब्दियों तक<br />हवा, धूप और संगीत की तरह<br /><br />मैं रहूं रहूँ तेरे झरनों की गुनगुनाहट<br />और उसके जल की मिठास में<br />तेरे पतझड़ का एक पत्‍ता<br />तेरे वसन्‍त का एक पलाश <br />और लाखों-लाख बरस की तेरी उम्र में<br />एक दिन का प्रकाश<br /><br />तेरे खेतों की बालियों का<br />एक अदद दाना मैं रहूं<br />रहूँजो लुढ़क रहा हो<br />पक्षियों की नींद में<br /><br />जब घिर आये<br />आएथकान और अंधकार से भरी सांझ<br />साँझउड़ने लगे पराजय की धूल और पत्‍ते<br />सिर टिकाने को मिले<br />हमें तेरा ही कंधा<br /><br />ऊर्जा दे में मुझे ओ पृथ्‍वी<br />कि हम चुकायें<br />बरसों-बरसों का बकाया<br />तेरे अन्‍न-जल का ऋण.<br />ऋण।<br /poem>
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