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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश प्रजापति
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धरती की पहली ऋतु का
पहला फूल है सूरज
उमंग से खिलता
उम्मीद के रंगों से झिलमिलाता
अँधेरे के मुँह पर चपत लगाता
निस्तब्धता तोड़ता
चिड़ियों के गान पर मुस्कुराता
और किसान की चिकनी पीठ पर चमचमाता
चमगादड़ की आँखों में
अँधेरा भरकर
उतर आता है जीवन के बीहड़ में
उदासी को गुदगुदाता
सूरज के आगमन से
बदल जाता है ऋतुओं का मिज़ाज
निखर जाता है-
अवसाद की राख में लिपटा
रात का चेहरा
झिलमिलाने लगता है
डर से भरा जंगल
सूरज की सतरंगी उँगलियों से
चैकड़ी भरने लगते हैं हिरण शावक
पूरे आवेग से बहती शांत नदी में
अर्पित कर रहे हैं हम, सूरज को
अपने प्रियजनों के फूल
और जीवन के वे क्षण
जिनकी स्मृतियाँ
बरसों तक कौंधती रहंेगी हमारे अंतस् में
पूरब के किवाड़ पर
दस्तक के साथ ही
बेताब हो जाती है पूरी दुनिया
खुलने को हमारी तरफ़
अभी अँधेरा है बहुत
मेरी बेटी छुपाकर सूरज को
किताब के पन्नों के बीच
पूरी तन्मयता और
बहुत तेज़ कदमों से
माँ का हाथ पकड़े
जा रही है स्कूल बस ही ओर।
</poem>