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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश प्रजापति
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पक रहे हैं मेरे शब्द-
झरबेरी में
बाजरे की जड़ों में
धान की बालियों में
चूल्हे की कोख में
बच्चे की आँखों में
चहक रहे हैं मेरे शब्द-
कास की झाड़ियों में
बाँसों के झुरमुट में
आँगन के पेड़ पर
गाँव की गलियों में
और लड़कियों की चुहलों में
पूस की रात में
ठिठुरती झोंपड़ी में
घर की चिंता में डूबे
गुड़गुड़ाते हैं हुक्का
और लोहार के हथौड़े से
ढल रहे हैं औज़ारों में
भविष्य को करने सुरक्षित
समय की चाक पर
कुम्हार के हाथों शब्द
बदल रहे हैं दीयों में
लड़ने के लिए अँधेरे के खि़लाफ़
गुनगुना रहे हैं-
दूध बिलोती माँ की हाँड़ी में
मेरे शब्द
एक दिन उड़ जाएँगे मुक्त गगन में
अहसास के पंछी बनकर
तिरती रहेगी हवा में
उनकी सुगबुगाहट।
</poem>