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क्या मेरी आत्मा का चिर -धन ? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! :प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, :तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, :सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; ::निज सुख से ही चिर चंचल -मन, ::मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन। मैं प्रेम प्रेमी उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
:लगता अपूर्ण मानव-जीवन, :मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन। ::जग-जीवन में उल्लास मुझे, ::नव -आशा; , नव -अभिलाष मुझे; ,::ईश्वर पर चिर -विश्वास मुझे; :::चाहिए विश्व को नव-जीवन :::मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन!
चाहिए विश्व को नव जीवन मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
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