Changes

}}
{{KKCatKavita}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
क्या मेरी आत्मा का चिर -धन ? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !  :प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, :तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, :सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;  ::निज सुख से ही चिर चंचल -मन, ::मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।  मैं प्रेम प्रेमी उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
:लगता अपूर्ण मानव-जीवन, :मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।  ::जग-जीवन में उल्लास मुझे, ::नव -आशा; , नव -अभिलाष मुझे; ,::ईश्वर पर चिर -विश्वास मुझे; :::चाहिए विश्व को नव-जीवन :::मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन!
चाहिए विश्व को नव जीवन मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits