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:शांत स्निग्ध, ज्योत्सना धवलज्योत्स्ना उज्ज्व्ल! :अपलक अनंत, नीरव भूतलभू-तल! सैकत -शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल , :लेटी है हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल! तापस -बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख में से दीपित मृदु -करतल , :लहरे उर पर कोमल कुंतल! कुंतल।गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार -तरल सुन्दर :चंचल अंचल -सा नीलांबर! साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी -विभा से भर ,:सिमटी है हैं वर्तुल, मृदुल लहर! चाँदनी रात का प्रथम प्रहर हम चले नाव लेकर सत्वर! सिकता की सस्मित सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर, लो पाले चढ़ी, उठा लंगर! मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर, लघु तरणि हंसिनी सी सुन्दर तिर रही खोल पालों के पर! निश्चल जल ले शुचि दर्पण पर, बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर! कालाकाँकर का राजभवन, सोया जल में निश्चित प्रमन पलकों पर वैभव स्वप्न-सघन! लहर।
:चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
:हम चले नाव लेकर सत्वर।
सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
:लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर
:तिर रही, खोल पालों के पर।
निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर
:दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।
कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,
:पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।
नौका में उठती जल-हिलोर,