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पत्थर / विजय कुमार पंत

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तुम्हारे
सुंदर पैर
अक्सर पढ़ते हैं
मेरी छाती पर
पर फिर भी साँस ले लेता हूँ
घुटन नहीं होती
मुझे इतना सुंदर
भी तुमने ही
बनाया घिस -घिस कर
अक्सर लोग
कुछ भी गिरा देते है
कितनी भी ज़ोर से
अजीब से लोग
अहसास ही नहीं होता
उनको हमारे दर्द का
जो मन में आया
वो करते रहते हैं
बस एक तुमसे ही मिलता है
स्नेह और प्यार
जब तुम अपने
कोमल हाथों से रगड़-रगड़ कर
साफ़ करती हो मेरा चेहरा
और सचमुच तुम्हारी सूरत
देख कर मैं भी चमक उठता हूँ
और कभी ऐसा लगता है
मुझे चमकता देख कर
तुम खिल उठती हो
जो भी हो मुझे
अच्चा लगता है
वैसे "शाहजहाँ " के अलावा ये कोई
नहीं जनता की
हमारे भी दिल होता है
और हाँ आंखें भी होती है
आपको मालूम है ?
इसीलिए उसने हमको निगेहबान
बना दिया ” मुमताज़महल ” का
वरना हम बस
पत्थर ही रह जाते
जिन पर अक्सर कुछ भी गिरा दिया जाता
लेकिन आज कल
हमको देख कर लोग
“ताज महल ” याद कर लेते हैं
बाकि सब बेजान समझ कर
ठोकर मरते रहते हैं
केवल कुछ मुम्ताज़ों को ही
हम पर तरस आता है
कई भाव -हीन
आड़ी-तिरछी , सूरत देख कर
समझ नहीं पाता
कि किसलिए केवल हमको ही
पत्थर है कहा जाता....
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