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04:30, 21 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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सर्वथा ही
यह उचित है
औ' हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध
चिर-वीर प्रसविनी,
स्वाभिमानी भूमि से
सर्वदा प्रत्याशित यही है
जब हमे कोई चुनौती दे,
हमे कोई प्रचारे,
तब कड़क
हिमश्रृंग से आसिंधु
यह उठ पड़ें,
हुँकारे-
कि धरती काँपे,
अम्बर में दिखाई दें दरारें।
शब्द ही के
बीच में दिन-रात बरसता हुघ्आ
उनकी शक्ति से, सामर्थ्य से-
अक्षर-
अपरिचित नहीं हूँ।
किंतु, सुन लो,
शब्द की भी,
जिस तरह संसार में हर एक की,
कमज़ोरियाँ, मजबूरियाँ हैं।
शब्द सबलों की
सफल तलवार हैं तो
शब्द निबलों की
नपुंसक ढाल भी हैं।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ का जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कंठ से गाया गया है।
और ऐसा अजदहा जब सामने हो
कान ही जिसके ना हों तो
गीत गाना-
हो भले ही वीर रस का तराना-
गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना,
दम घटाना।
ओ हमारे
वज्र-दुर्दम देश के
वक्षुब्ध-क्रोधतुर
जवानों!
किटकिटाकर
आज अपने वज्र के-से
दाँत भींचो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो,
ऊपर बढ़ो,
बे-कंठ खोले।
बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दो चोटें बोलें!