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पेंसिल / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
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09:40, 24 मई 2010
यह चलती ही जाती है ।।
तख़्ती, क़लम, स्लेट का तो इसने कर दिया सफ़ाया है ।
बदल गया है समय पुराना,
नया ज़माना आया है ।।
</poem>
अनिल जनविजय
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