2,632 bytes added,
15:16, 24 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
भीग चुकी अब जब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे
आँखों में तस्वीर कि सारी
सूखी-सूखी साफ़, अदागी,
पड़नी थी दो छींट छटटकर
मैं तेरी छाया से भागी!
:::बचती तो कड़ हठ, कुंठा की
:::अभिमानी गठरी बन जाती;
भाग रहा था तन, मन कहता
:::जाता था, पिछुआए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
:::जितना चाह भिगाए जा, रे!
सब रंगों का मेल कि मेरी
उजली-उजली सारी काली
और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे
काली को कर दूँ उजियाली;
:::डर के घर में लापरवाही,
:::निर्भयता का मोल बड़ा है;
अब जो तेरे मन को भाए
:::तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
:::जितना चाह भिगाए जा, रे!
कठिन कहाँ था गीला करना,
रँग देना इस बसन, बदन को,
मैं तो तब जानूँ रस-रंजित
कर दे जब को मेरे मन को,
:::तेरी पिचकारी में वह रंग,
:::वह गुलाल तेरी झोली में,
हो तो तू घर, आँगन, भीतर,
:::बाहर फाग मचाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
:::जितना चाह भिगाए जा, रे!
मेरे हाथ नहीं पिचकारी
और न मेरे काँधे झोरी,
और न मुझमें हैबल, साहस,
तेरे साथ करूँ बरजोरी,
:::क्या तेरी गलियों में होली
:::एक तरफ़ी खेली जाती है?
आकर मेरी आलिंगन में
:::मेरे रँग रंगाए जा, रे?
भीग चुकी अब जब सब सारी,
:::जितना चाह भिगाए जा, रे!