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{{KKRachna
|रचनाकार=निर्मला गर्ग
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<poem>
मैं बढ़ई होना चाहती थी
कितना रोमांचकारी होता है तख्ते तख़्ते पर आरी चलानायह खयाल ख़याल मुझे कहां कहाँ से आया?
शायद बाई जूई की किताब पढ़ते हुए
हालांिक हालाँकि उसमें बढ़इगिरी का जिक्र ज़िक्र तो था नहीं
किसी पक्षी के बारे में कुछ था
मुझे याद आया कठफोड़वा
दरभंगा में बाड़ी में देखा था
दिल्ली आने के बाद तो इन सबकी गंुजाइश गुंजाइश बची नहीं
ढक -ढक
कठफोड़वा वृक्ष के तने में छेद कर रहा था
आरी जैसी थी उसकी लंबी चोंच
सच्िचदानंद सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयबड़े किव कवि गद्यकार थे
पर बढ़ई भी कोई कम न थे
अपने अंितम अंतिम दिनों में बनाया उन्होंने रहने के लिएपेड़ पर कमरा देखने आएकिव कवि पत्रकार
चिंतक नाटककार
इतिहासकार दाशर्िनकदार्शनिक
मैं छोटी बढ़ई होती
बच्चों के लिए बनाती
छुक -छुक गाड़ी
सुग्गा
टोप लगाए फौजी
खिलौने विहीन बचपन में उनसे कैसी रौनक आती!
</poem>
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