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उल्लासों की माया थी।
 
उषा अरुण प्याला भर लाती
 
सुरभित छाया के नीचे
 
 
मेरा यौवन पीता सुख से
 
अलसाई आँखे मींचे।
 
ले मकरंद नया चू पडती
 
शरद-प्रात की शेफाली,
 
 
बिखराती सुख ही, संध्या की
 
सुंदर अलकें घुँघराली।
 
सहसा अधंकार की आँधी
 
उठी क्षितिज से वेग भरी,
 
 
हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी
 
उद्वेलित मानस लहरी।
 
व्यथित हृदय उस नीले नभ में
 
छाया पथ-सा खुला तभी,
 
 
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति
 
कर दी तुमने देवि जभी।
 
दिव्य तुम्हारी अमर अमिट
 
छवि लगी खेलने रंग-रली,
 
 
नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
 
निकष पर खिंची भली।
 
अरुणाचल मन मंदिर की वह
 
मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,
 
 
गी सिखाने स्नेह-मयी सी
 
सुंदरता की मृदु महिमा।
 
उस दिन तो हम जान सके थे
 
सुंदर किसको हैं कहते
 
 
तब पहचान सके, किसके हित
 
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
 
जीवन कहता यौवन से
 
"कुछ देखा तूने मतवाले"
 
 
यौवन कहता साँस लिये
 
चल कुछ अपना संबल पाले"
 
हृदय बन रहा था सीपी सा
 
तुम स्वाती की बूँद बनी,
 
 
मानस-शतदल झूम उठा
 
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
 
तुमने इस सूखे पतझड में
 
भर दी हरियाली कितनी,
 
 
मैंने समझा मादकता है
 
तृप्ति बन गयी वह इतनी
 
विश्व, कि जिसमें दुख की
 
आँधी पीडा की लहरी उठती,
 
 
जिसमें जीवन मरण बना था
 
बुदबुद की माया नचती।
 
वही शांत उज्जवल मंगल सा
 
दिखता था विश्वास भरा,
 
 
वर्षा के कदंब कानन सा
 
सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
 
 
 
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