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संवेदनमय हृदय हुआ।
 
किंतु अधम मैं समझ न पाया
 
उस मंगल की माया को,
 
 
और आज भी पकड रहा हूँ
 
हर्ष शोक की छाया को,
 
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के
 
उपादान से गठित हुआ,
 
 
ऐसा ही अनुभव होता है
 
किरनों ने अब तक न छुआ।
 
शापित-सा मैं जीवन का यह
 
ले कंकाल भटकता हूँ,
 
 
उसी खोखलेपन में जैसे
 
कुछ खोजता अटकता हूँ।
 
अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का
 
आकर्षण है खींच रहा,
 
 
 
सब पर, हाँ अपने पर भी
 
मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।
 
नहीं पा सका हूँ मैं जैसे
 
जो तुम देना चाह रही,
 
 
क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी
 
मधु-धारा हो ढाल रही।
 
सब बाहर होता जाता है
 
स्वगत उसे मैं कर न सका,
 
 
बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे
 
हृदय हमारा भर न सका।
 
यह कुमार-मेरे जीवन का
 
उच्च अंश, कल्याण-कला
 
 
कितना बडा प्रलोभन मेरा
 
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
 
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस
 
छोडो मुझ अपराधी को"
 
 
श्रद्धा देख रही चुप मनु के
 
भीतर उठती आँधी को।
 
दिन बीता रजनी भी आयी
 
तंद्रा निद्रा संग लिये,
 
 
इडा कुमार समीप पडी थी
 
मन की दबी उमंग लिये।
 
श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी
 
हाथों को उपधान किये,
 
 
पडी सोचती मन ही मन कुछ,
 
मनु चुप सब अभिशाप पिये-
 
सोच रहे थे, "जीवन सुख है?
 
ना, यह विकट पहेली है,
 
 
भाग अरे मनु इंद्रजाल से
 
कितनी व्यथा न झेली है?
 
यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी
 
झिलमिल चंचल सी छाया,
 
 
श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे
 
यह मुख या कलुषित काया।
 
 
 
 
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