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छुट गया हाथ से आह तीर।"
 
 
 
"प्रिय अब तक हो इतने सशंक,
 
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
 
यह विनियम है या परिवर्त्तन,
 
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
 
 
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
 
लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-
 
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?
 
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।"
 
 
"तुम देवि आह कितनी उदार,
 
यह मातृमूर्ति है निर्विकार,
 
हे सर्वमंगले तुम महती,
 
सबका दुख अपने पर सहती,
 
 
कल्याणमयी वाणी कहती,
 
तुम क्षमा निलय में हो रहती,
 
मैं भूला हूँ तुमको निहार-
 
नारी सा ही, वह लघु विचार।
 
 
मैं इस निर्जन तट में अधीर,
 
सह भूख व्यथा तीखा समीर,
 
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,
 
चलता ही आया हूँ बढ कर,
 
 
इनके विकार सा ही बन कर,
 
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
 
लघुता मत देखो वक्ष चीर,
 
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
 
 
 
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